कभी-कभी किसी की मृत्यु समूची दुनिया के लिए उत्सव बन जाती है। 14 फरवरी के दिन संत वैलेंटाइन को फांसी की सजा हुई थी। संत वैलेंटाइन ने रोमन सम्राट की इस राजाज्ञा को पूर्णतः गलत और अव्यवहारिक मानते हुए सैनिक अफसरों और फौजियों का विवाह कराना प्रारंभ किया। देखते ही देखते हजारों सैनिक विवाहित हो गए। यही वजह थी कि संत वैलेंटाइन सम्राट क्लाउडियस के दुश्मन बन गए। उन्होंने इस सुकर्म के लिए संत वैलेंटाइन को चाबुक से पीट-पीटकर मार डालने और उनका सिर कलम करने की सजा सुना दी। संत चले गए पर उनका चिरस्मरणीय कर्म अमिट रह गया। 14 फरवरी का अविस्मरणीय दिवस, जिसे संसार भर के युवा वर्ग प्रेम-रोमांस पर्व (alentine Day)के रूप में मनाते हैं।
17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में एक परंपरा थी कि 14 फरवरी की सुबह कोई युवती जिस युवक को सबसे पहले देख लेती थी, वही युवक उस युवती का ’वैलेंटाइन’ बन जाता था। वैलेंटाइन एक व्यक्ति न रहकर प्रेम-रोमांस का पर्याय बन गया। रोमन ईसाईयों के लिए 14 फरवरी ’विवाह दिवस’ बन गया। अधिकांश युवक-युवती इसी दिन विवाह संस्कार में बंधने लगे।
प्रेम आत्मा की अभिव्यक्ति
प्रेम आत्मा की अभिव्यक्ति है। संत कबीर अपनी वाणी में कहते हैं, ’ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ। ढाई अक्षरों में निहित प्रेम के गूढ़ रहस्य को जान लेने में ही पंाडित्य की सार्थकता है। इसमें ऐसा कौन-सा रहस्य छिपा है? जिसे जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है। सामान्य भाषा में तो सब यही कहते हैं कि अमुक को पत्नी से प्रेम है। उसे बच्चों से प्रेम है, मां से प्रेम है आदि-आदि बातें करते हैं। इस सब में क्या कोई दूसरा प्रेम है?
इस पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी, बच्चों या अन्य किसी संकीर्ण दायरे में पनपने वाला प्रेम, प्रेम नहीं मोह होता है। इस मोह और प्रेम में विरोधाभास जैसी स्थिति है। यदि प्रेम को शरीर कहा जाए, तो मोह को छाया कहा जाना उचित होगा। दोनों में अंतर भी वही होता है, जो शरीर और परछाई में है। एक सजीव होती है दूसरी निष्प्राण। छाया को देखकर सजीवता का भ्रम तो होना संभव है, पर उससे शरीर का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।
प्रेम व मोह में एक दूसरा अंतर और है-प्रेम चेतन से होता है, मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित प्रेम उसके रूप-लावण्यमय जड़ शरीर से होता है न कि आत्मा से इसलिए यह मोह ही है। पत्नी, पत्नी होने के कारण नहीं अपितु आत्मा होने के कारण प्रिय होना चाहिए। संतान, संतान के कारण नहीं, आत्मा के कारण प्रिय होना चाहिए।
प्रेम सीमित नहीं रह सकता
प्रेम का प्रारंभ किसी एक व्यक्ति से हो सकता है, पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है, तो समझना चाहिए कि यह मोह है। प्रेम में तो पाने की नहीं, देने की उमंग रहती है। प्रेमी की प्रसन्नता और हितकामना विद्यमान रहती है। मोह में स्वार्थपरता, संकीर्णता पनपती है। इसमें आदान-प्रदान नहीं, उपयोग की अपेक्षा होती है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ, संसार से किसी न किसी प्रकार की स्वार्थ सिद्घि की अभिलाषा रहती है। जिसके प्रति मोह रहता है, उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की ललक रहती है। इसमें तनिक-सा व्यवधान उत्पन्न होने पर क्रोध-असंतोष का ज्वार उमड़ पड़ता है। प्रेम में इस प्रकार की कोई बात नहीं होती।
सबसे प्रिय उत्सव
अब तो प्रायः सभी देशों में युवक-युवतियों के लिए 14 फरवरी सबसे प्रिय उत्सव बन गया है। 'वैलेंटाइन डे' मनाने के दुनिया भर में तरह-तरह के तौर-तरीके प्रचलित हैं। अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करने और मनपसंद साथी का चुनाव करने के लिए युवा प्रेमियों ने 14 फरवरी को शुभ मुहूर्त माना है। इस पवित्र दिवस पर वे अपना मनपसंद बधाई कार्ड खरीद कर उस पर अपने हृदय के उद्गार या किसी रोमांटिक कविता की कुछ पंक्तियां अंकित कर अपने प्रिय को देते हैं।
प्रेम पवित्र व निश्छल है
प्रेम तो गंगाजल की तरह पवित्र व निश्छल है, जिसे जहां भी डाला जाए, पवित्रता ही उत्पन्न करेगा। उसमें आदर्शों की कडिय़ां जुड़ी रहती हैं। विवेकशीलता सहृदयता, पवित्रता, करूणा जैसे गुण समाहित रहते हैं। प्रेमी जिससे भी प्रेम करता है, उसमें उन गुणों के अभिवर्द्घन के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। भावनाएं तथा संवेदनाएं हमेशा उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पित रहें, यही प्रेम है। इसे सीमा की संकीर्ण दीवारें बांध नहीं सकती।
जीवन के उत्कृष्टतम रूप की अभिव्यक्ति प्रेम के माध्यम से होती है। यदि इसे हटा दें, तो फिर मानव जीवन की कोई विशेषता नहीं रह जाती। संत कबीर के शब्दों में ’जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान’। सचमुच उसका हृदय श्मशान की तरह होता है, जिसमें प्रेम के पुष्प नहीं खिलते, जहां विभिन्न दुर्गुण, चिंता, क्रोध, असंतोष के भूत मंडराया करते हैं। ऐसा जीवन धरती के लिए भार स्वरूप ही होता है।