Thursday 30 January 2020

खतरा- पहले बाहर से था, अब अंदर से है...


1857 मेें जब भारत ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली अंगडाई ली, तब उस विद्रोह का महज एक ही उद्देश्य था, कैसे भी हो बस ब्रिटिश कंपनी के कुशासन से मुक्ति पानी है। इस विद्रोह में मंगल पांड़े, तात्या टोपे, लक्ष्मीबाई सहित सैकड़ों भारतीयों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके बाद भी परतंत्रता की लंबी यंत्रणा चलती रही, इस परतंत्रता का कारण भारत के तत्कालीन राजाओं और नवाबों ने जिस तरह अंग्रेजों के आगे घुटने टेके, एक दूसरे के खिलाफ षडयंत्र रचे और पेंशन तथा सुविधाओं के बदले आजादी को रेहन रख दिया उससे तभी स्पष्ट हो गया था कि भारत से अंग्रेजों को अब खानदानी राजे-महाराजे और नवाब नहीं अपितु जनता के बीच से उठे वे ही लोग भगा सकते हैं जिनके शरीर से मिट्टी की महक आती हो, जिन्हें आजादी की कीमत और गुलामी की पीड़ा तथा यंत्रणा का अहसास हो। 



लंबे संघर्ष शहादत और कुर्बानियों के बाद 1947 में भारत आजाद हुआ। हिन्दुस्तान ने गणतांत्रिक शासन पद्धति को चुना जो शायद लोकतंत्र का सबसे परिष्कृत और निखरा हुआ रूप है। यही वह शासन प्रणाली है जिसमें देश के हर नागरिक को फर्श से अर्श पर पहुंचने के सपने देखने और उन्हें पूरा करने का अधिकार है। यही वह पद्धति है जिसमें गरीब का बेटा लालबहादुर शास्त्री, नरेन्द्र मोदी भी प्रधानमंत्री हो सकता है और जिसमें रामनाथ कोविंद महामहिम रामनाथ कोविंद हो सकते हैं। 

मगर आजादी मिलने के बाद समय गुजरता गया सम्मोहन हटता गया, नशा और खुमारी उतरते गए तथा यथार्थ सामने आते गए। गरीबी, भूख, बीमारी भारतीय गण के सबसे पहले स्वप्न हन्ता बन कर उभरे। भय, भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार उसके इन्द्रधनुषों पर बादल बनकर ऐसे छाये कि आज तक हटने मेें नहीं आये। 

चुनाव में उल्टे सीधे वादे, घोषणाएं और लोक के ऊपर लाठी का प्रभुत्व गणतंत्र की परीक्षा नहीं अपितु अग्निपरीक्षा का काल है। वोट बैंक की खातिर संविधान से छेड़छाड़ व तोड़मरोड़ भारत जैसे देश में ही संभव है जहां लोकतंत्र के चार स्तंभों मेें से व्यवस्थापिका का हाल घोटालों ने और कार्यपालिका का हाल भ्रष्टाचार ने खराब करना शुरू कर दिया। चौथा खम्बा भी अब निस्पृह और अछूता नहीं रह गया है। मगर आश्चर्य कि इतना सब होने के बाद भी भारत का गणतंत्र न केवल जिंदा है अपितु वह सीना तान कर खड़ा है। 

अग्नि परीक्षा की इस सदी में भले ही ‘टोपी’ और ‘कलम’ दोनों ही नीचे आए हों, पेटों की सिलवटें पूरी तरह न खुली हो, स्कूल, कालेज राजनीति के अड्डे बनें हो और सत्ता घोटालों की निमित्त बन गई हो मगर भारतीय गणतंत्र ने न घुटने टेके हैं न ही हाथ खड़े किये हैं उसका संघर्ष उसी जिजीविषा के साथ जारी है, जिससे उसने आजादी की जंग जीती थी। फर्क महज इतना है कि पहले यह संघर्ष दूसरों से था अब अपनों से। पहले खतरा बाहर से था तो अब अंदर से है।

अपने ही देश को नीचा दिखाने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। जो लोग छद्म तरीके से इस देश के विकास को दीमक की तरह चाट रहे थे उन पर लगाम लगी तो वह छटपटाने लगे हैं। वह अब बाहर आ गये हैं और खुलकर सरकार की हर नीति का विरोध करने लगे हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से हमने पाकिस्तान को 90 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन लुटवा दी। कश्मीर की समस्या खड़ी कर दी। चीन को कैलाश मनासरोवर सहित 62 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन देना पड़ी। देश में नक्सलवाद, आपातकाल उन्हीं की देन है। कश्मीर हिंदू आज कश्मीर से बाहर है।
फिर एक बार 1947 में भारत विभाजन जैसे हालात पैदा किये जा रहे हैं। सीएए और एनआरसी को मुद्दा बनाकर लोगों को बहकाया जा रहा है। आज जबकि हमारे अल्पसंख्यक भाई-बहन रोजना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में प्रताड़ित किये जा रहे हैं, रोजना उनपर अत्याचार हो रहे हैं उनकी रक्षा के लिये हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अखण्ड प्रतिज्ञा की तो यहां के लोगों को बुरा लगने लगा।

आज जबकि चीन-पाकिस्तान हमसे डरने लगे हैं, ऐसे में हमारे आंतरिक लोगों को यह पसंद नहीं आ रहा है। इस प्रकार की आजादी उन्हें अच्छी नहीं लग रही है। वह सामाजिक वं सांप्रदायिक हिंसा पैदा कर रहे हैं। 

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