बच्चों के बचपन से लेकर युवावस्था तक चरित्र निर्माण में माता-पिता की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बालकों के चरित्र निर्माण के लिये माता-पिता रात दिन एक कर देते हैं और अपना सर्वस्य लगा देते हैं। उनकी हर जरूरतों को पूरा करते हैं। तनिक भी बच्चे को कोई परेशानी होती है तो हमेंशा उसके साथ खड़े होते हैं।
पालनीय चरित्र माता-पिता द्वारा होना चाहिए
प्रथमत: पालनीय चरित्र माता-पिता द्वारा होना चाहिए। पातन्जलि योग शास्त्र में लोक व्यवहार के लिये लिखा गया है कि मैत्री भाव अर्थात् जो समरसता को चाहते हैं उनमें मित्रता का व्यवहार होना चाहिये। मित्रता का वर्णन करते हुए संत तुलसीदास जी ने लिखा है कि सहायता करना, दया करना, प्रसन्नता का भाव अर्थात् जहां भी प्रगति हो, संपन्नता हो, विशेषता हो, विशेषज्ञता हो, उनको देखकर मुदित होना। शेष रहता है उपेक्षा का भाव अर्थात् उनसे व्यवहार न रखना तथा उनकी चर्चा भी न करना।
संत तुलसीदास जी ने तीन दोषों से संबंधित व्यक्तियों को राक्षस कहा है। इसका अर्थ है कि प्रमुखत: तीन दोषों से अवश्य बचना चाहिये। उन्होंने लिखा 'पर द्रोही, पस्दाखत, परधन पर अपवाद, ते नर पामर पाप मय देह धरे मनुजाद। दूसरे से ईष्र्या रखने वाला अर्थात दूसरों की सफलताओं से जलन अनुभव करने वाला, दूसरे की स्त्री से लगाव रखने वाला और दूसरे की संपदा के लिये झगड़ा-टंटा करने वाला राक्षस कहा गया है। यदि उपरोक्त बातों का विचार करने वाले माता-पिता होते हैं तो संतान का चरित्र आकर्षक बनता है।
दूसरे क्रमांक पर माता-पिता यदि बालक की संगति सभ्य और विद्याध्ययन में प्रवीण बालकों के साथ बनाने का पूरा पूरा ध्यान रखते हैं तो बालक विचारशील तथा रचनात्मक प्रवृत्ति का बनता है।
तीसरे क्रम में माता-पिता यह भी परख करें कि पाठशाला के प्रबंधक तथा प्रधानाचार्य सद्चरित्र, बच्चों के प्रति आत्मीय और बच्चों के संबंध में अभिभावकों से संपर्क बनाये रखने के स्वभाव के हों तथा पाठशाला में पठन-पाठन समान भाव से करवाते हैं तो ऐसी पाठशाला में ही बच्चों को भर्ती करावे।
समयावधि का नियमित पालन
चौथे क्रमांक पर माता-पिता स्वास्थ्य के लिये, मन की एकाग्रता के लिये और अध्ययन के लिये समयावधि का नियमित पालन करवाने का प्रबंध करें तथा इन तीनों बातों पर ध्यान देते रहे। गुरूकुल व्यवस्था नहीं होने पर माता-पिता ही बालक के प्रति सावधान रहेंगे तो ही बचपन से सद्चरित्रता को संरक्षण मिलेगा।
पांचवें क्रम में माता-पिता किसी आध्यात्मिक अथवा विद्वान धार्मिक व्यक्ति के प्रति बालक के हृदय में श्रद्घाभाव जगाकर उनसे यदा कदा संभव हो तो दैनिक संबंध रखने की प्रेरणा देते रहे। इस प्रकार बालक उचित अनुचित का ज्ञान प्राप्त करेगा तथा उचित को अंगीकार करने की चेष्टïा करेगा।
बच्चों के साथ आत्मीयता
माता-पिताओं और अध्यापकों के सोचने का विषय है कि विद्या के अंतर्गत सभी विषयों के ज्ञान से बुद्घि बढ़ती है, तर्कशक्ति बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, परंतु मानव का मन विकसित नहीं होता। बहुधा बालक जन्मत: स्वकेंद्रित होता है। वह चाहता है कि सब उससे प्रेम करें, उसकी इच्छापूर्ति करें, उसका विश्वास करें, उसके लिये कष्टï उठावें, उसे सुख के साधन देते रहे, उसका साथ देते रहे। यदि यह स्वकेंद्रित स्वभाव बड़े होने तक पलता रहता है तो ऐसा व्यक्ति दूसरों के भले की दृष्टि न रखकर 'सारी दुनिया मेरे लिये की प्रवृत्तिवाला बन जाता है। हिरण्यकश्यप, रावण और कंस इसी प्रकार बनते हैं अत: मूलत: माता-पिता ही समाज की आज की व्यवस्था में जब तक प्रमुखत: स्वयं को उत्तरायी नहीं मानेंगे, स्वयं के चरित्र पर ध्यान देते हुए नहीं चलेंगे तो शिक्षा की वर्तमान पद्घति से मानवीय एवं सामाजिक मनों का निर्माण नहीं होगा जो मनुष्यों के प्रसन्न जीवन के लिये अनिवार्य है। संपदा कितनी भी हो परंतु आसपास स्वार्थ प्रेरित व्यक्ति रहे तो प्रसन्न जीवन कैसे बन सकता है? ऐसा भी सोचे कि जिनकी संतानें हो और वे ही उनके विकास की कल्पना से विहीन हों तो क्या पड़ोस के लोग अथवा जन-प्रतिनिधि इस कठिन उत्तरदायित्व को निभायेंगे? यह विषय बच्चों के साथ आत्मीयता से ही सफल हो सकता है जो माता-पिता से ही अधिक मिलनी संभव है।
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