भारत में ऐसे अनेक महापुरूषों ने जन्म लिया है जिन्होंने भारत माता की सच्ची सेवा की है। इन महान विभूतियों ने विश्व, देश और समाज में व्याप्त स्थितियों पर मौलिक रूप से चिंतन कर ऐसे निष्कर्ष सामने रखे जो भारत को नयी दिशा देने वाले थे। इनमें से कुछ महापुरूषों के विचार और चिंतन आज भी प्रसिद्ध हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही तत्वज्ञ महापुरूष हैं, जिनका दर्शन आज भी प्रासंगिक है। 11 फरवरी 2020 को उनकी 104वीं जयंती है।
एकता का दर्शन ही एकात्म मानवतावाद
वैसे तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन ने जीवन के प्रायः सभी पक्षों को छुआ है, लेकिन मानव के समग्र विकास और आर्थिक विषयों पर उनका चिंतन सर्वकालिक रूप से प्रासंगिक है। उन्होंने एकात्म मानवतावाद का जो दर्शन सामने रखा वह भारतीय मनीषा के युगों-युगों के तत्वचिंतन का निचोड़ है। संक्षेप में ’सर्वत्र मूलभूत एकता का दर्शन ही एकात्म मानवतावाद है। पंडित जी एक निष्काम कर्मयोगी थे, जिन्होंने राष्ट्र और समाज के प्रति पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
अद्भुत प्रतिभा के धनी
पंड़ित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1917 को धनकिया (राजस्थान) मेें हुआ था। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद तथा माताजी का नाम श्रीमती रामप्यारी था। बचपन में ही माता-पिता का साया सिर से उठ जाने पर उनका लालन पालन उनके मामा श्री राधारमण शुक्ल की देखरेख में हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि तथा मेधा से सम्पन्न, पंडित उपाध्याय ने सीकर से मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और अजमेर बोर्ड में पहला स्थान प्राप्त किया। उनकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर सीकर महाराज ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की। उन्होंने पिलानी (राजस्थान) के बिड़ला कॉलेज से इण्टर की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस पर उन्हें श्री घनश्यामदास बिड़़ला ने भी छात्रवृत्ति प्रदान की।
पंडित उपाध्याय ने कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से बी.ए. में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया और सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में एम.ए. की पढ़ाई की। उसके बाद उन्होंने प्रयाग में एल.टी. प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।
कई प्रकाशनों को शुरू किया
पंडितजी 1937 में मकर संक्रमण उत्सव पर कानपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। संघ की राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत, पंडित उपाध्याय ने घर-परिवार बसाने की जगह प्रचारक के जीवन में प्रवेश किया। वह प्रखर लेखक और पत्रकार भी थे। उन्होंने 1947 में लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना करके ’राष्ट्रधर्म’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। कुछ ही दिनों में साप्ताहिक ’पांचजन्य’ शुरू किया। इन दिनों पत्रों की लोकप्रियता से उत्साहित होकर उन्होंने दैनिक ‘स्वदेश’ भी शुरू किया।
जनसंघ की नींव रखी
पंडित उपाध्याय ने 20 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश जनसंघ की नींव रखी। इसके एक माह बाद ही डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। दिसंबर 1952 में डॉ. मुखर्जी ने पंडित जी को जनसंघ का महामंत्री बनाया। उस वक्त डॉ. मुखर्जी ने यह प्रसिद्घ वाक्य कहा था कि ’पंडित दीनदयाल जैसे एक-दो व्यक्ति मुझे और उपलब्ध हो जाएं, तो मैं चुटकियों में देश की राजनैतिक तस्वीर बदल दूं।
दिसंबर, 1967 में पंडित उपाध्याय को अखिल भारतीय जनसंघ के कालीकट अधिवेशन के लिए अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया गया। उनकी मेहनत, संगठन क्षमता तथा बुद्विमत्तापूर्ण नेतृत्व से जनसंघ अत्यधिक मजबूत हुआ। पंडित जी की 11 फरवरी, 1968 को संदेहास्पद परिस्थिति में मृत्यु हो गयी। मुगल सराय स्टेशन पर उनका मृत शरीर पाया गया।
देखेंः वेलेंटाइन डे पर विशेषः 14 फरवरी अवस्मरणीय 'प्रेम दिवस' https://vajrnews.blogspot.com
एकात्म मानवतावाद
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार भारत की मनीषा ने सृष्टि तथा जीवन को लेकर गहन मनन किया। इसका निष्कर्ष यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि में एक आंतरिक एकता है। पंडित जी के चिंतन का केन्द्रीय आधार यही बना। पंडित उपाध्याय कहते हैं कि सृष्टि का स्वरूप बाहर से कितना ही विविधतापूर्ण हो, लेकिन वह एकात्मवादी है। उसके विविध रूपों में परस्पर सहयोग, सामंजस्य एवं परिपूरकता का भाव मुख्य है। पंडित जी के अनुसार व्यक्ति और समाज में कोई विरोध नहीं है। वे व्यक्ति की चार मूल आकांक्षाओं-अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में कोई विरोध नहीं देखते। जहां वे व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को जरूरी मानते हैं, वहीं यह भी मानते हैं कि मात्र भौतिक आवश्यकता की संतुष्टि से व्यक्ति सुखी और आनंदित नहीं हो सकता।
पंडित जी राष्ट्र के लिए ’चित्यि (राष्ट्र की आत्मा) को आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार यह चिति ही अपने को व्यक्त करने के लिए राष्ट्र और राष्ट्र के अंतर्गत अनेकानेक संस्थाओं का निर्माण करती है। अतएव इन संस्थाओं में विरोध का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। किंतु फिर भी उनमें विरोध और संघर्ष दिख पड़ता है। उसके कारण उनका नियमन करने वाले किसी प्राकृतिक नियम की उपेक्षा या उल्लंघन ही होता है। हमारे ऋषियों एवं समाजविचारकों ने इस विकृति की भी चिंता की थी और उसके परिमार्जन के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित की थी।
अर्थ चिंतन
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अर्थ चिंतन उच्च कोटि का तथा भारतीय संस्कृति सभ्यता तथा परिस्थितियों के अनुरूप था। इसका महात्मा गांधी के अर्थ चिंतन से अद्भुत तादात्म्य है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना है कि किसी देश की अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो मानव के मानवत्व को समाप्त न करे। इससे उस पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पडऩा चाहिए, बल्कि उसका विकास होना चाहिए। लक्ष्य यह हो कि मनुष्य मानवत्व से ऊपर उठता हुआ देवत्व की ओर बढ़ सके। भारतीय संस्कृति मनुष्य के पूर्ण विकास की पक्षधर है। अर्थव्यवस्था का लक्ष्य लोगों के भरण-पोषण, जीवन के विकास तथा राष्ट्र की धारणा के लिए भौतिक साधनों का उत्पादन होना चाहिए, जिनकी आवश्यकता होती है। प्रत्येक देश में इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि उत्पादन उपभोग का अनुसरण करे अथवा उपभोग उत्पादन का।
पश्चिम की सोच कहती है कि आदमी की इच्छा अनंत हैं और उनकी निरंतर पूर्ति होनी चाहिए। पहले इच्छा जन्म लेती है, फिर उसको पूरा करने के साधन जुटाए जाते हैं। आज की सोच में जो कुछ पैदा किया जा रहा है, उसके उपभोग की इच्छा पैदा की जाती है। बाजार के लिए माल पैदा करने की जगह माल के लिए बाजार तैयार किया जाता है। पंडित जी के अनुसार यह मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं है।
इसी तरह पंडित उपाध्याय प्रकृति के संतुलित दोहन के पक्षधर थे। वे प्रकृति का शोषण नहीं दोहन चाहते हैं। उनके अनुसार प्राकृतिक सम्पदा सीमित है। यदि उत्पादन को असीमित बढ़ाया जाएगा, तो प्राकृृतिक साधन लंबे समय तक हमारा साथ नहीं देंगे। ऐसी स्थिति में हमारे हाथ सिर्फ पछतावा ही रहेगा। प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं के बीच एक तालमेल है। वर्तमान युग की अर्थव्यवस्था इस संतुलन को बिगाड़ रही है। हमें प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए, जितने की वह पूर्ति कर सके। पंडितजी के अनुसार मशीन मनुष्य की सहायक हो सकती है, प्रतिस्पर्धी नहीं। मशीन के उपयोग से यदि बेरोजगारी बढ़ती है तो उसका प्रयोग नहीं होना चाहिए। जैसे किसी कारखाने की पूर्ण उत्पादन क्षमता का उपयोग नहीं हो रहा है, तो यह घाटे का सौदा है, उसी तरह मनुष्य का बेकार रहना भी घाटे का सौदा है।
पंडित जी के शब्दों में हमें ’कमाने वाला खाएगा’ की जगह ’खाने वाला कमाएगा’ का लक्ष्य रखकर भारत की अर्थ रचना करना चाहिए। वे चाहते थे कि नया युग श्रम का युग हो।