Saturday, 22 February 2020

होली का मजा राजस्थान के लोकवाद्य चंग के बिना अधूरा है

फाल्गुन के महीने में रंग और चंग के आनंद में समूचा देश सराबोर हो उठता है। इस बार रंगों का पवित्र त्यौहार होली दहन 9 मार्च को होगा और होली 10 मार्च को खेली जायेगी। राजस्थान में होली के अवसर पर चंग बजाने की परम्परा वर्षों पुरानी है। आधुनिक युग में भले ही पाश्चात्य संगीत ने जन-जन को अपने आगोश में ले रखा हो, लेकिन लोकवाद्य चंग का होली में अपना ही महत्व है। चंग को यहाँ के लोग डफ कहकर भी पुकारते हैं। मारवाड़ में तो बसन्त पंचमी से ही डफ के स्वर सुनाई देने लगते हैं। गाँवों में तो विशेषकर यही वाद्य युवा टोलियों के गले में लटका दिखाई देता है। फाल्गुन माह में देर रात तक लोग चंग को लोक गीतों के साथ गाते हुए बजाते हैं। चंग की मधुर ध्वनि व रसियों की आवाज सुनने वालों को अपनी ओर आकर्षित कर मंत्रमुग्ध कर देती है।

राजस्थान का यह प्रसिद्घ लोकवाद्य भेड़ की खाल को लकड़ी के गोल घेरे पर चढ़ाकर तैयार किया जाता है। लेकिन बढिय़ा आवाज के लिए डफ के कारीगर विभिन्न रासायनिक पदार्थों में खाल को भिगोकर अच्छी तरह पकाते हैं। बाद में खाल को साफ कर बड़े परिश्रम से चंग को खटीक जाति के ही लोग तैयार करते हैं।

डफ बनाने के लिए बढ़ई आमतौर पर शीशम व आम की लकड़ी का प्रयोग करते हैं। ये पंचकोण व अष्टïकोण के या गोल घेरे आजकल बने बनाये मिल जाते हैं। होली से कई दिन पूर्व ही रसिये अपनी-अपनी चंग में घुंघरू, लोहे व पीतल के छल्ले, मंजीरे इत्यादि सुरीली आवाज के लिए लगवाते हैं। इन डफों के अन्दर रसिये, राग-रागनियों, लोक-देवताओं, राधा-कृष्ण व नर्तक-नर्तकियों के रंग-बिरंगे चित्र लगवाये जाते है।

चंग बजाने के लिए कलाकार को कड़ा अभ्यास करना पड़ता है। उसे सुरों का ज्ञान होता है तभी वह बढिय़ा चंग बजा सकता है। चंग बजाने के लिए मोर के पंख के पिछले हिस्से की कटिंग करके चिमटी बनाई जाती है, यदि मोरपंख उपलब्ध न हो तो बाँस की खपच्ची से भी चंग बजाई जा सकती है। यूँ तो डफ दो चालों से बजता है लेकिन कुशल कलाकार इसी डफ से कई सुर निकाल लेते हैं। चंग व लोकगीतों का साथ चोली दामन वाला होता है, क्योंकि इसके बिना होली का मजा अधूरा ही लगता है। डफ के साथ पूरी टोली के लोग धमाल गाते हैं, ये लोक जीवन से जुड़े हुए गीत होते हैं। ये पारम्परिक लोक गीत फाग से संबंध तो रखते ही हैं, साथ ही इसको गाने वाले कलाकार गीत की पंक्तियों के अंत में 'रेÓ शब्द पर जोर देते हैं। पक्के राग और ऊँचे स्वर में गाये जाने वाले लोकगीतों की धमाल में थाप के बाद अन्तरे भी परिवर्तित हो जाते हैं।

होली के अवसर पर राजस्थान में चंग बजाने की अनूठी प्रतियोगिताएं भी होती हैं। इन प्रतियोगिताओं में विभिन्न ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों के कलाकार भाग लेते हैं। डफ के साथ बांसुरी और छनकणों के तालमेल से संगीत इतना मनमोहक हो जाता है कि सुनने वाले स्वयं झूम उठते हैं।

जनमानस में होली के अवसर पर जहां सामूहिक नृत्य व गीत के आयोजन होते हैं वहीं स्त्री-पुरूष रस भरे संवादों वाले गीत भी गाते हैं। जिनमें यह गीत अत्यंत ही प्रसिद्घ है-

बिन कजले गोरी की,
मेहन्दी क्यूं राची।
कठे तो बुहाधूं तेरो झीणो-झीणों
कजलों,
कठे तो बुहाधूं बूटो मेहन्दी को।
काहे से निनाणूं तेरो झीणो कजलों,
काहे से निनाणूं बूटो मेहन्दी को।

इसके अलावा जब भी रसिये फाग गाने टोलियों में निकलते हैं तो ये मंदिर में जाकर देव स्तुति व गणेश पूजन करके ही बोल-चाल की भाषा में गैरे गाते हैं। इन गैरों के गीतों की भाषा बड़ी ही मीठी होती है, जैसे-

होली आई रे,
हंस बोलो रे भाईयां।
दुनिया में थोड़ो जीणो रे,
के महीनों होली रो।
लोग-लुगाइयां गावे रे,
के महीनों होली रो।

डफ बजाने वाले रसिये विभिन्न रंग-बिरंगी पोशाकों के साथ सिर पर मोठड़े के पोतिये (पगड़ी) बांधे रहते हैं। लेकिन आजकल इससे जुड़े कलाकार व गायक फाल्गुन गीतों में कुछ अश्लील शब्दों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं, जिससे अब बड़ी-बड़ी टोलियाँ चंद लड़कों में ही सिमट कर रह गयी हैं, जो देर रात के बाद सूनी सड़कों पर फाग गैरें गाते नजर आते हैं। हालाँकि जनमानस इस वाद्य से पूरी तरह से नाता तो नहीं तोड़ पाया है, परन्तु दूरी अवश्य ही बढ़ा रहा है। 

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