Saturday 22 February 2020

स्वाभिमानी स्वाधीनता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद

मात्र 14 वर्ष की आयु में न्यायाधीश को आजादी का सबक सिखाने वाले महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने अपने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान करके वास्तव में अपने नाम को सार्थक किया। निर्धन ब्राह्मïण परिवार में जन्में चन्द्रशेखर में राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। तभी तो उन्होंने किशोरावस्था में न्यायालय के आदेश पर दण्ड स्वरूप लगाई गई पन्द्रह बेतों की सजा को हंसते-हंसते भुगता और स्वतंत्रता आन्दोलन को नई दिशा दी। क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के अलीराजपुर के भाबरा में हुआ था।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'आजादÓ को दी गई 15 बेतों की सजा का जिक्र करते हुए उल्लेख किया कि बालक आजाद बेंत की सजा भुगतते हुए बेहोश होने तक 'वन्दे मातरम्', 'भारत माता की जय', का उद्घोष करते रहे।

चन्द्रशेखर आजाद स्वाभिमानी स्वाधीनता सेनानी थे, उन्होंने निर्धन होने पर भी कभी किसी से आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं की। वे व्यक्तिगत बातों का कभी जिक्र भी नहीं करते थे। बस, जब भी कहीं बात करते कहते आजादी कैसे मिले? यही सवाल उनकी जुबान पर रहता। एक बार उनके सहयोगी साथी भगत सिंह ने उनसे कहा, 'पंडित जी, इतना तो बता दीजिए कि आपका घर कहां है और घर में कौन-कौन है ताकि भविष्य में हम उनकी, आवश्यकता पडऩे पर सहायता कर सकें तथा देशवासियों को एक शहीद का ठीक से पता चल सके।Ó इतना सुनते ही आजाद क्रोधित हो गये और बोले, 'इतिहास में मुझे अपना नाम नहीं लिखवाना है और न ही मेरेे परिवार वालों को किसी प्रकार की सहायता चाहिए। माता-पिता के जीवन की अपेक्षा पार्टी का अस्तित्व मेरे लिये अधिक महत्वपूर्ण है और पार्टी के अस्तित्व की रक्षा के लिए वह पूर्ण समर्पित हूं।

आजाद नारी के प्रति सम्मान भाव रखते थे। पार्टी के लिए धन लूटते समय उन्होंने कभी भी नारियों के आभूषणों को नहीं छुआ और न ही उनके प्रति कोई अभद्रता प्रकट की। यहां तक कि अंग्रेजों की स्त्रियों को भी उन्होंने हमेशा सम्मान दिया। उनकी दृष्टिï में राष्टï्र के अभ्युदय के लिए चरित्र और अनुशासन अत्यावश्यक ही नहीं, वरन् अनिवार्य है। देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते-करते वह ऐतिहासिक दिन 27 फरवरी भी आ पहुंचा, जिसने आजाद के नाम को सार्थक कर दिया। इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से लड़ते-लड़ते जब उनके पास आखिरी गोली बची, तो वे उस आखिरी गोली से स्वयं शहीद हो गये परन्तु अंग्रेजों के हाथों मरना गवारा नहीं किया।

अल्फ्रेड पार्क का वह वृक्ष, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी, जनता की श्रद्धा और पूजा का स्थल बन गया। आजाद की स्वरचित  पंक्तियां उनके नाम व काम को सार्थक कर रही हैं-

दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे।
आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे॥

'आजाद' के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 'आजाद' ने अपनी वीरता व बलिदान से भारत को आजादी दिलाने में जो भूमिका निभायी, उसके लिए सम्पूर्ण राष्ट्र उनके प्रति कृतज्ञ है। 

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