Sunday, 23 February 2020

आपसी मिलन का प्यारा प्रेम-पर्व भगोरिया

हमारे देश में रंगों का त्यौहार होली का आगमन शुरू हो गया है। होली 10 मार्च को मनाई जायेगी। लेकिन इससे पहले रंगों के त्यौहार होली की तैयारियों की छटा देखते ही बनती है। टेसू के फूलों से सारा जंगल आच्छादित हो जाता है। टेसू के फूलों की आच्छादित छटा हमें अक्सर अपनी ओर खींच ही लेती है। साथ ही होली की तैयारियां भी जोर-शोर से शुरू हो जाती हैं। आज भी गांवों में होली के त्योहार को लेकर फागें व अन्य गीत गाये जाते हैं। प्राचीन व मध्ययुगीन इतिहास में, मालवा की सरहद पर बसे दो छोटे शहर-भगोर और झाबुआ के नाम सुविदित हैं। भगोर, झाबुआ शहर से कहीं ज्यादा प्राचीन है। आज यह भू-भाग, भील, व उनसे संबंधित जनजातीय उपशाखाओं जैसे भिलाओं, पटलियों व बारेलों सहित एक विशिष्ट सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व साहित्यिक विरासत  बन कर, न केवल मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र में लोकप्रिय है, बल्कि अखिल भारत में तथा कुछ सीमा तक सम्पूर्ण विश्व में आदिवासियों की विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर की पहचान बना रहा है। देश व विदेश के प्रसिद्घ विद्वानों, साहित्यकारों और मानवशास्त्रियों, जैसे डॉ.नेमीचंद जैन, श्रीचंद जैन, श्याम परमार, डॉ.रीता विसिंगर, डॉ.एस.एल. दोषी,डॉ. जे.के. दोषी, ई.स्टीगलमायर, डॉ. स्टीफन फूक्स एस.वी.डी., हरमन मथियास एस.वी.डी. लियों युंगब्लट एस.वी.डी. डॉ. विविलयम कोपर्स एस.वी.डी. आदि ने भीलों के प्रमुख पर्व या तीज त्यौहारों जैसे भगोरिया (Bhagoria), गल व गड आदि पर्वो से जुड़े भील-भिलालों की सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा भावनात्मक विरासत का खुल कर दिलचस्प वर्णन किया है। भगोरिया प्रेम-पर्व के रूप में आज भी प्रचलित व लोकप्रिय है।
 जनजातीय विरासत 

भील साहित्य की कमी की वजह से, भील इस प्राचीन क्षेत्र में अपनी जनजातीय विरासत की पहचान बनाए रखने के बावजूद भी, अपनी आंचलिक व सांस्कृतिक विरासत की अमिट छाप, आदिवासी लोक-साहित्य व संस्कृति की दुनिया में, नहीं छोड़ पाए। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त छायाकार श्री आनंदीलाल पारिख ने भगोरिया (Bhagoria) को हजारों चित्रों में कैद किया है। यहां के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार श्री एस.एल. मालवीय ने भील-भगोरिया को अपने रेखाचित्रों द्वारा, भीलों को, पर्याप्त शोभायमान किया है।

भीलों के इस प्राचीन सांस्कृतिक भू-भाग भगोर-झाबुआ का वर्णन करते हुए, भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ श्री जॉर्ज ग्रियर्सन ने भीलों तथा भीली (भाषा) को मुख्यत: 47 भागों में सुनियोजित रूप से विभाजित किया तथा भीली की विभिन्न उप-बोलियों के आधार पर भी,भील भाषा-क्षेत्र को इन्हीं नामों से सांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में भी विभाजित किया। झाबुआ जिले का प्राचीन नगर भगोर, जिसके अवशेष मात्र मिलते हैं भीली लोकसाहित्य व लोक गीतों में उल्लेखित, कुंवरी जासमा आडेणी द्वारा बनाया गया भगोर का प्राचीन जलाशय, प्राचीन पातालेश्वर महादेव मंदिर आदि के रूप में आज भी विद्यमान हैं। प्राचीन भगोर-भाषा, साहित्य व संस्कृति का केन्द्र कहा जाता था। किंवदंतियों में कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहीं इसी जगह एक बड़ा शहर, भृगु ऋषि के नाम सेे बसा था। इसी शहर के नाम से भीलों का यह प्राचीन सांस्कृतिक क्षेत्र भगोर कहलाया व यहां बसने वाले आदिवासी भील भगोरिया भील के नाम से अपनी अलग पहचान विश्व स्तर पर बनाए हुए हैं।  भीलों में आज भी एक लोकप्रिय कहावत प्रचलित है जिसमें कहा गया है-भागी भगोर, वहीं इन्दौर अने रतलाम (भगोर के टूटने या बिखरने से इंदौर और रतलाम शहर बसे।) इसका सीधा सा अर्थ यही है कि यह शहर बहुत प्राचीन व विशालतम होगा। और कितनी  प्राचीन रही होगी यहां की संस्कृति? कौन थे इस भगोर को बसाने वाले? और वे भी कौन थे जो प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष छोड़ गये और क्यों पतन हो गया इस बने बनाए शहर का? इस प्रश्नों के उत्तर इतिहासकार नहीं दे पा रहे हैं। 

अनेक भीली लोक-कथाएं भी प्रचलित 

यहां बसने वाले भील भगोरिया (Bhagoria) भील कहलाते हैं और यहां की बोली या भाषा भगोरिया भीली कहलाती है। डॉ. हरमन मथियास ने 1964 में भगोर के भीलों पर 507 पृष्ठ का एक विस्तृत ग्रंथ जर्मन भाषा में लिखा, जिसका हिन्दी व इंग्लिश अनुवाद करना अभी बाकी है। एक और लोक-कथा प्राचीन भगोर शहर की  अथाह धन-संपत्ति के बारे में यहां के भीलों में प्रचलित है- भगोरयों भेरू, कटारा नी वावड़ी, मांदलयो मोवड़ो, केहरयो खाल, इना नी वस मां, बारा गेंडा माल से। (भगोर शहर का भेरू, कटारों की बावड़ी, मांदलया खाल  का मोवडा और केसरिया खाल के बीच, इतना सोना-चांदी यहां गड़ा हुआ है कि 12 गेंडे भी नहीं उठा सके।) इसी तरह की अनेक भीली लोक-कथाएं भी प्रचलित हैं। होली के पूर्व के अठवारे में यहां लगने वाले अंतिम हाटों को, जो रबी की फसल के तुरन्त बाद लगते हैं और यहां के भील जिस में  सर्वाधिक क्रय-विक्रय करते हैं, उस हाट को भगोरिया हाट या फिर गलालिया हाट कहते हैं। तो आइये इस भगोरिया (Bhagoria) या गलालिया हाट की  साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा भावनात्मक विरासत को देखें जिसकी वजह से आज ये हाट सम्पूर्ण विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान बनाते जा रहे है। देखे उन हाटों की लोक-संस्कृति, लोक-विरासत और लोक-उत्सव।

प्रमुख आकर्षण  भगोरिया  (Bhagoria)

झाबुआ जिले में 85 प्रतिशत आदिवासी है जिसमें प्रमुख भील आदिवासी ही हैं। 8 तहसीलों के 12 विकासखण्डों में छोटे-बड़े 50 भगोरिया (Bhagoria) हाट बड़े जोर-शोर से लगाए जाते हैं। मूल आदिवासी समाज की संस्कृति जैसे भील आदिवासी उनमें से एक अनोखी और विशिष्ट व अलग भारतीय संस्कृति आज भी बनाए हुए है। जिसका ज्वलंत उदाहरण प्रेम-पर्व भगोरिया है। जिसमें विशिष्ट एवं प्राचीन भील-संस्कृति के कुछ समग्र, मूल व प्रमुख तत्व प्रबल रूप से दृष्टिगत व प्रगट होते व स्पष्ट रूप में उभर कर सामने अभिव्यक्त होते हैं, जैसे लोक-जीवन, लोक-गीत, लोक-नृत्य, भील-व्यंग्य, शारीरिक अलंकरण रोमांस, सादगी, सौंदर्य बोध, डोफाई (भील गर्व) सामूहिकता, कलात्मकता, परिश्रम, हास्य प्रेम आदि सभी प्रमुख सांस्कृतिक तत्वों के रूप में उभर कर अभिव्यक्ति करते हैं।  ये हाट सांस्कृतिक अतीत के इतिहास, सामाजिक,-उद्ïभव, लोक-जीवन के द्वारा अपनी ही वैचित्रिक सांस्कृतिक धरोहर की पहचान आज भी बनाए हुए हैं। जो इन दिनों भगोरिया का प्रमुख आकर्षण हैं।

आज भगोरिया, (Bhagoria) प्राचीन भगोर प्रांत (झाबुआ जिले के भील आदिवासियों के सांस्कृतिक विरासत का भाग) में तथा उससे संबंधित पड़ौसी भील क्षेत्रों जैसे भील-राठ (जोबट-अलीराजपुर), पलवाड़ (थांदला-कांकणवाणी) व पेटलावद (मालवा) में होता हैं। इस तरह झाबुआ, थांदला, जोबट, अलीराजपुर, नानपुर, चांदपुर, भाबरा, उमराली, खट्ïटाली, आदि कुछ विशेष भगोरिया हाट क्षेत्र हैं। भगोरिया मेला 3 मार्च से शुरू होकर 9 मार्च तक चलेगा। 

आलिराजपुर - झाबुआ  इस दिन लगेगा मेलाः-
3 मार्च (मंगलवार) - बखतगढ़, आम्बुआ, अंधारवड़, पिटोल, खरड़ू, थांदला, तारखेड़ी एवं बरवेट।
4 मार्च (बुधवार) - चाँदपुर, बरझर, बोरी, उमरकोट, माछलिया, करवड़, बोरायता, कल्याणपुरा, खट्टाली, मदरानी एवं ढेकल।
5 मार्च (गुरुवार) - फूलमाल, सोंडवा, जोबट, पारा, हरिनगर, सारंगी, समोई एवं चैनपुरा।
6 मार्च (शुक्रवार) - कट्ठीवाड़ा, वालपुर, उदयगढ़, भगोर, बेकलड़ा, मांडली एवं कालदेवी।
7 मार्च (शनिवार) - मेघगनर, रानापुर, नानपुर, उमराली, बामनिया, झकनावदा एवं बलेड़ी।
8 मार्च (रविवार) - झाबुआ, छकतला, झीरण, ढोलियावाड़, रायपुरिया, काकनवानी, सोरवा, आमखूँट, कनवाड़ा एवं कुलवट।
9 मार्च (सोमवार) - आलीराजपुर, भाबरा, पेटलावद, रंभापुर, मोहनकोट, कुंदनपुर, रजला, बडगुड़ा एवं मेड़वा।

धार में इस दिन लगेगा मेलाः-
धार:- 
3 मार्च (मंगलवार) - करजवानी (डही), कुक्षी, नालछा, धरमपुरी, तिरला।
4 मार्च (बुधवार) - अराड़ा (डही), सुसारी, सरदारपुर, सलकनपुर, गोलपुरा।
5 मार्च (गुरुवार) - डही, रिंगनोद, दत्तीगांव, गुजरी, बाकानेर, सिंघाना।
6 मार्च (शुक्रवार) - धरमराय व पड़ियाल (डही), धामनोद, मनावर, जौलाना।
7 मार्च (शनिवार) - कवड़ा च बाबली (डही), खलघाट।
8 मार्च (रविवार) - बड़वान्या (डही), राजगढ़, गंधवानी, टांडा, भारुड़पुरा।
9 मार्च (सोमवार) - फिफेडा (डही), बाग, निसरपुर, डेहरी, धानी, गुमानपुरा।

बड़वानी में इस दिन लगेगा मेलाः
3 मार्च (मंगलवार) - बालकुआ, रोलर, पलसूद, नागलवाड़ी, मंडवाड़ा, चाचरिया, बावदड़, बिजासन।
4 मार्च (बुधवार) - सिलावद, बालसमुद, घटया, धवली, धनोरा, भवली, सेमलेट ।
5 मार्च (गुरुवार) - पाटी, राजपुर, दवाना, राखी बुजुर्ग, बलवाड़ी, जोगवाड़ा।
6 मार्च (शुक्रवार) - मेनीमाता, बोकराटा, ठीकरी, मोयदा, तलवाड़ा, वरला, झोपाली।
7 मार्च (शनिवार) - गंधावल, ओझर, भागसुर, वझर, खेतिया, मटली।
8 मार्च (रविवार) - बड़वानी, चेरवी, पोखल्या, बरुफाटक, पानसेमल, सेंधवा, इंद्रपुर।
9 मार्च (सोमवार) - गारा, जुलवानिया, निवाली, अंजड़, सोलवन, जूनाझीरा।

भील प्रेम-पर्व भगोरिया (Bhagoria)

आज बहुल रूप से भगोरिया विशाल स्तर पर मनाया जाता है। भील भगोरिया (Bhagoria) के आदर्श, गरिमा एवं भव्यता के  यूरोप व अमेरिका की प्रेम-पर्वो की संस्कृतियां भी फीकी पड़ जाती है क्योंकि भील प्रेम-पर्व भगोरिया, अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से ओतप्रोत रहता है। इसलिए यह सारे विश्व में अनूठा और पवित्र पर्व है।

भगोरिया (Bhagoria) का प्रेम-पर्व जिस  दिन लगता है, पूरा क्षेत्र एक विलक्षण तरह के स्थानीय रोमांस से, मदमय हो जाता है। भगोरिया हाट के दिन सभी गांवों, गलियों और घरों में एक विशेष उत्साह, मनोवैज्ञानिक उन्माद व सरगर्मी युवाओं में सहज रूप में ही फैल जाती है। वे नैसर्गिक व सहज उन्माद से सराबोर हो उठते हैं। तब गांवों में ढोलों के संगीत के स्वर दूर-दूर तक प्रतिध्वनित होते हैं। कहीं घुंघरूओं की छम-छम, तो कहीं थाली की झंकार, कहीं कुण्डी या फिर शहनाई की तीव्र नाद, कहीं मांदल की थाप से उपजे संगीत के मधुर स्वर, दूर-दूर तक वन-प्रान्तरों, पहाड़ों की घाटियों, नदियों व जलाशयों की तरंगों, खेतों व खलिहानों में अविरल  और सहज प्रतिध्वनित हो उठते है और निरंतर प्रतिध्वनित होते  ही रहते हैं बड़ी देर तक। मार्गो पर जगह-जगह युवक-युवतियां, ग्वाल बालक बालिकाएं लोकनृत्य करते, गीत गाते, वाहनों को रोकते, उनसे प्रेम पूर्वक रूपये उगाहते, ललकारते, बीड़ी के लिये, चुंबन व अन्य संकेतों द्वारा निवेदन करते, जगह-जगह झाबुआ जिले में देखे जाते हैं। फिर घरों, फलियों व गांवों के भील भिलालों, बारेली,-पटलियों व राठियों की छोटी-बड़ी व रंग-बिरंगी टोलियां भगोरिया के हाटों की तरफ, उत्साह, उमंग, मौज मस्ती व निर्भीकता के साथ बढ़ती हैं। लाल, पीली, हरी,विविध रंगों की पोशाकें, घाघरे, चुनरी व ब्लाउज धारण कर, खेतों मार्गो व पगडंडियों से नाचते, गाते झूमते दारू पीते आते देख कर यहां का सामाजिक दृश्य बड़ा सुंदर व लुभावना लगता है। आदिवासी युवतियों के प्रफुल्लित गाल, रंगे होंठ, सज्जित माथे, हंसली, लोलिये, तोरण्ये, सीड़ कड़े, सांकली, पायजेब, हाथफूल बाहट्रये, कणदोरे आदि आभूषण गले हाथों, कानों,चारा व सहभागिता के साथ फुर्ती से लपक कर बढ़ते हैं।  बाजार की सरहदों पर नाचते गाते ढोल, मांदलों आदि की संगत पर नृत्य-टोलियों की बड़ी संख्या होती है। भगोरिया (Bhagoria) हाट के स्थल का भी अलग व सुंदर स्वरूप दूर से ही उभरने लगता है।

दूर-दूर से कई नई किस्म की दुकानें, नये-पुराने व्यापारी लाते व लगाते हैं। उनमें झूले, मिठाइयां, वस्त्र, तरह-तरह के सोने-चांदी  आदि धातुओं व प्लास्टिक के आभूषण, श्रंृगार के प्रसाधन, खिलौने, बर्तन, वस्त्र, भोजन-सामग्री, आदि प्रमुख  रहते हैं। बच्चों और आदिवासी युवतियों को यह सामग्री सर्वाधिक पंसद होती है। भगोरिया के प्रेमी-प्रेमिका, भील युवा प्रेमी व आदिवासी वर्ग झूलों (हिंसलों,) चकरियों (सकरी), नृत्य-स्थल (खली), पान व बरतन की दुकानों के आस-पास अपनी धूम व मस्ती में ही मंडराते रहते हैं। विगत वर्ष झाबुआ में शासकीय हायर सेकेण्डरी स्कूल-मैदान पर तथा बाहर के अन्य खाली  स्थानों में हजारों आदिवासी युवा-पे्रमियों की भीड़ का सैलाब उमड़ पड़ा था। इनमें कई जोड़ विवाह रचाने की योजना भी बनाते है और मौका आने पर कई जोड़े भाग भी जाते हैं। और यह अनायास भागना सहज आदिवासी प्रथा के अनुरूप है भी, जिसे हम आज की भाषा में लवमेरिज के नाम से पुकार सकते हैं। यह पलायन भील विवाह प्रथा का एक सामाजिक व अभिन्न अंग भी है। केवल हायर सेकेण्डरी स्कूल पर ही 3 दर्जन झूलों के बीच, इन युवा-प्रेमियों को खिसकने के लिए एक इंच खाली जमीन भी नहीं मिल पा रही थी। प्राय: समान तरह के काजल का आंजना, गालों की लाली, होठों की रंगाई, नख-पालिश, ब्लाउज, साड़ी व घाघरे का रंग, परंपरागत गहने,  रंग-बिरंगी पगडिय़ां, लुभावने रूमाल, भांति-भांति की चूडिय़ां, नृत्य से जुडी अजीब चाल भील व अन्य आदिवासी युवतियों में देखा जाना बड़ा रोमांचकारी लगता है। सबके चहेरे शोषण एंव दरिद्रता से घिरे होने के बावजूद प्रेम-पर्व भगोरिया (Bhagoria) पर शाश्वत ऊर्जा आ जाती है। भील युवा वर्ग तरह-तरह की समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद सदा खिले ही रहते हैं। इसी परम्परागत्ï प्रेम के उन्माद की घनी छाया भगोरिया अठवारे, में, झाबुआ जिले के गांव-शहर, सर्वत्र छायी रहती है। यह अनूठा प्रेम पर्व है जो इस समाज के लिये परमात्मा का वरदान मात्र ही है। इसी उन्माद और रोमांचक मूड व उन्माद में प्रेमी अपनी प्रेमिका को ले भागता है। सफल हो जाने पर प्रेमी जन, विशेष कर लड़के लंबे समय तक इसकी स्मृति बनाए रखते है कि अमुक लड़की को मैं भगोरिया से भगाकर लाया था। इसीलिये आजकल भगोरिया या गलालिया को, भगोडय़ा हाट, भगाने या फिर भागने वालों का पर्व भी अपरंपरागत्ï भाषा में कहा जाता है।  वैसे भगोरिया शब्द की व्युत्पति भगोर क्षेत्र से तथा उसके आस-पास होने वाले होलिका-दहन के पूर्व या उसके अंतिम हाट से ही हुई है। वैसे इसका असली नाम है-गलालिया हाट याने गुलाल फेंकने वालों का हाट। अलीराजपुर में विगत वर्ष उमराली, चांदपुर, सोण्डवा, रानापुर आदि स्थानों पर आदिवासी नाच की परम्परागत्ï टोलियाँ दूर-दूर से आई थीं। इन में लड़कों ने देह-श्रृंगार का ध्यान नहीं रखा था पर वहां की आदिवासी लड़कियॉ प्रकृति से ही सुंदर और देह-श्रृंगार से ज्यादा मोहक दिखाई दे रही थी। गत वर्ष भाबरा, माण्डव व नानपुर का भगोरिया काफी अच्छा लगा था। गोरिया हाट में कलह, दुश्मनी, अपहरण आदि को लेकर कई बार खून-खराबा भी सहज रूप में हो जाते है। प्रशासन इस बात का पूरा ध्यान रखता है और अनहोनी घटना नहीं होने देता है। झाबुआ व अन्य स्थानों के भीलों में गलालिया और होली-पर्व, होलिका-दहन के दिन की संध्या में मनाया जाता है। एक अन्य आदिवासी पर्व गल-देवर्ïया जो असंभव, काम को सफल करने वाले देव गल-देवर्ïया से मानता लेने और उस दिन धन्यवाद के तौर पर बकरे का भोग चढ़ाने के लिये होता है। वहां गल के मचान के थूड़ के समक्ष भक्त-जन आते हैं। होलिका-दहन, गल आदि की वजह से भी भगोरिया के महत्व में वृद्घि होती जा रही है। 

होलिका दहन की पूर्व संध्या को समाप्त हो जाता है भीलों के प्रेम-उन्माद, उत्साह का लोकप्रिय, प्रेम-पर्व भगोरिया या गलालिया हाट। संध्या होते ही सभी गलालिया हाट के प्रेमी, सवारी बसों, जीपों, दुपहिया वाहनों, सायकलों, बैलगाडिय़ों से या फिर पैदल ही सड़कों, खेतों, पहाडिय़ों, जलाशयों आदि को पार करते हुए, अपने घरों में धीरे-धीरे पहुंचने लगते हैं। दिन भर की मौज-मस्ती व थकान उनके मन को यह सोचकर और अधिक भारी कर देती है कि हमारा प्रेम-पर्व भगोरिया (Bhagoria) या गलालिया फिर कब आएगा? और गोधूलि के बाद जब गांवों में, रात्रि का अंधकार फैलने लगता है, तब ढोलों, मांदलों, थालियों और कुंडियों की स्वर लहरी से उपजे संगीत के स्वर के स्पंदन, धीरे-धीरे थम जाते हैं एक साल के लिए। और तब रात के अंधकार में, सो जाती हैं युवा पीढ़ी अपने -अपने घरों में, यह सोच मन में लेकर कि प्रेम और आपसी मिलन का यह प्यारा प्रेम-पर्व भगोरिया, फिर कब आएगा! 

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