सभी को अपने फागुनी रंग में डुबो देती है होली
भारतवर्ष में अनेक त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार जिसे हम रंगों का त्योहार कहते हैं होली (Holi) है। चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों का खिलना होली के आगमन का सूचक है। होली (Holi) का त्योहार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार होली 10 मार्च को है। फाल्गुन मास प्रसन्नता एवं सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता है। जड़चेतन को पुष्पित पल्लवित करने आता है यह महीना। इस कालखण्ड में जहां पुराने विस्मृत होते हैं वहीं नूतन की खोज की जाती है। फागुन में सारी धरती प्रसन्न हो उठती है। नवजीवन का जीवन में संचार करने, पुष्पों की सुगन्ध दिशाओं में बिखेर कर गमकाने आती है होली (Holi) । होली (Holi) में भावुक मन थिरकने लगता है। इस ऋतु में सुमन आभूषणों से धरती परिपूर्ण होकर इन्द्रधनुषी कल्पना को चरितार्थ करती है। होली सभी को अपने फागुनी रंग में डुबो देती है। भारत भूमि की थाती है होली। एकता और समग्रता के सूत्रों में पिरोती है होली (Holi) । कोयल की मीठी वाणी, आम्र बौरों की गंध, धीमे धीमे बहता वायु का झोंका मोहित कर लेता है।
नवसृष्टि का सृजन हार है फागुन
नवसृष्टि का सृजन हार है फागुन। सृष्टि, का मदन कलश इसमें छलकने लगता है। होली (Holi) ऊंच नीच का भेद नहीं जानती। अपनी लीला में झूमते हुए यह पर्व आगे पीछे की चिन्ता नहीं करता। सारी मर्यादाएं इसी होली में भुला दी जाती है। जो वृद्घ हैं, वे भी युवा मन से समप्रक्त हो जाते हैं। फागुनी बयार से प्रकृति सौंदर्य और यौवन के शिखर को छू लेना चाहती है। भीनी गमक सभी पर रंग बिरंगी अबीर गुलाल छींटती है। हृदय की गुदगुदी मन मयूर को नृत्य करने को विवश करती है मनोहारी रूप यौवन निखार पा जाता है इसमें। अधर पलाश, नेत्र कचनार, मन गुलाब और तन हरसिंगार की भांति हो जाता है। होली (Holi) में ब्रज की धरा आनन्दित हो उठती है। ब्रज भूमि के मथुरा, बरसाना और वृन्दावन मूल केन्द्र हैं। ब्रज में होली का जीवन्त अंकन मिलता है। पग-पग पर गाते है-
आज बिरज में होरी रे रसिया,होरी रे रसिया,बरजोरी रे रसिया।उड़त गुलाल लाल भये बादर,केशर रंग में बोरी रे रसिया।बाजत ताल मृदंग झांझ डफ, और मजीरा जोरी रे रसिया।फेंट गुलाल हाथ पिचकारी,मारत भर भर झोरी रे रसिया।इत सों आये कुंवर कन्हैया,उत सों कुंवरि किशोरी रे रसिया।नंद गांव के जुटे हैं सखा सब, बरसाने की गोरी, रे रसिया।
होली हृदयों का मिलन महोत्सव है
होली पर्व (Holi Festival) जीवन्त कविता और प्राणवान साकार प्रतिमा है। यह हृदयों का मिलन महोत्सव है। फागुन की इस बेला में धरा का प्रकृति श्रृंगार उच्चता पर होता है। प्रकृति स्वयं फागनमय हो जाती है। ग्राम्य जीवन की प्रेरक और मीत है फागुन की होली। पादप पौधों, पर्वत मालाओं, हिमशिखरों, सरोवरों की होली पुलकित कर देती है। प्रिय की अनुपम मनोरम छवि जीने नहीं देती। ब्रज में लट्ïठमार होली की अनोखी छटा होती है। ब्रज प्रेम सौन्दर्य की गुंजायमान भूमि है। कृष्ण की प्रेम लीला का जीवन्त संदेश देती है यह धारा। होली (Holi) पर्व पर सभी बाबरे हो जाते हैं। फागुन की यह होली (Holi) जीने की शक्ति प्रदान करती है कवियों की कल्पना होली में प्रखर हो उठती है हर बार। पद्ïमाकर कवि की उच्च कल्पना होली के सन्दर्भ में है-\
एक संग धये नंदलाल औ गुलाल दोऊ।दृगन गये जू भरि आनंद मढै़ नहीं।धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौंह। अब तो उपाय कोउ चित्त मैं कढै़ नहीं। कहा करौं, कहां जाऊं, कासों कहौं, कौन सुनै, कोऊ तौ निकासौ जासों दरद बढै़ नहीं। ऐसी मेरी पीर, जैसे तैसे इन आंखिन सो, कढिग़ौ अबीर पै अहीर कौ कडै़ नहीं।
रंगों से भरी बाल्टी लेकर पूरे गांव में घर घर रंग डालने की परम्परा अब कम होती जा रही है। लोहे और बांस की पिचकारियों से समानता का बोध होता रहा। बचपन में होली का क्या स्वरूप था, आज कैसा होता जा रहा है? फाग के गीत भी गुम होते जा रहे हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र होली के विषय में लिखते हैं।
खेलों मिलि होरी (Holi) घोरो केसर कमोंरी, फेंकौ भरि भरि झोरी लाज हिय में विचारौ ना। डारौ बहुरंग संग चंगहू बजाओ गांवो सवहि रिझाओं सरसावो संक धारौ ना। जोरिकर कहत निहोरि हरिचन्द्र प्यारे, मेरी विनती है एक ताहि तुम टारौ ना। नैंन हैं चकोर मुखचन्द्र सो परैगी ओट याती दल आंखिन गुलाल लाल डारौ ना।
फागुन में होली आस्था विश्वास का पर्व है। यह हर हृदय को पुलकित करने बार-बार आता रहे यही कामना है।
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