भक्तिकाल के स्वर्णयुग में अनेक संत और कवि हुये जिन्होंने मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की और जन-जन में भक्ति का संचार किया इन्हीं संतों में से एक थे महान संत रविदास, जिन्होंने समाज में फैली जातिगत ऊंच-नीच का घोर विरोध किया और जनमानस को बताया कि हम सभी एक ईश्वर की संतान हैं जन्म से कोई जात लेकर पैदा नहीं होता। 9 फरवरी को संत रविदास जी की 643वीं जन्म वर्षगांठ मनाई जाएगी। संत रैदास का जीवन आध्यात्मिक और निर्मल प्रेमानुराग का परिचायक है। बाह्य प्रदर्शन और आडम्बरों से दूर रहकर निश्छल और शुद्घ मन की साधना पर रैदास का जीवन अवलंबित रहा। रैदास के काव्य की वाणी रहस्योक्तियों से पूर्ण रही है। सहज साधना और भक्ति के विहंगम मार्ग की सफलता की अनुपम प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति चर्मकार व्यवसाय के साथ दी है, उनका कहना है कि वे जूते गांठना नहीं जानते परंतु लोग उनसे जूते गंठवाना चाहते हैं। वे सूजा न रांपी किसी का भी प्रयोग नहीं करते।
चमरटा गांठि न जनई लोग पठावै पनही।
आर नहि जिहि तोपउ, नहीं रांवी ठाउं तोपउ।
लोग गांठि-गांठि खरा विगूचा हड बिन गांठे जाय पहुंचा।
रविदास जयै रामनामा। मोहि जम सिउ नहिं कामा। (पद 31)
रैदास साधना की उपेक्षा के संबंध में एक अनूठा रूपक देते हैं।
देहु कलाली एक पियाला। ऐसा अवधू है मतवाला।
अरे कलाली तैं क्या कीया सिरका सा तैं प्याला दीया।
कहै कलाली प्याला देऊं पीवन हारे का सिर लेऊं।
सून्य सहज में भाटी सरवै पीवे रैदास गुरमुख दऊं। (पद 52)
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साधना और अनुभूति के अन्तर्मुखी
अपनी साधना और अनुभूति के अन्तर्मुखी आनंद के संबंध की अनुभूति में रैदास स्वयं को असमर्थ बताते हैं वे कहते हैं बोलने से परम तत्व विनष्ट हो जाता है। वाणी से परम तत्व को प्रकट करना असंभव रहता है।
तेरो जन काहे को बोलै, बोलि-बोलि अपनी भगति क्यों खोलै।
बोलत बोलत बढ़ै वियाधी, बोल अबोलै जाई।
बोलै बोल अबोल कंू पकरै बोलइ बोल कंू खाई।
बोलै गुरू अरू बोलै चेला बोलै बोल की परतीति आई।
कहै रैदास थकित भयो जब तबहिं परमनिधि पाई। (पद 46)
परमानन्द और परमतत्व की प्राप्ति
साधना के मार्ग में परमानन्द और परमतत्व की प्राप्ति और आह्लाद को प्रतीक तथा रहस्यात्मक उक्ति द्वारा रैदास पद 26 में कहते हैं।
गाय गाय अब का कह गाऊं गावन हारे को निकट बताऊं।
जब लग है यह तन की आस तब लग करैं पुकारा।
जब मन मिल्यों आस नहि तन की तब को जाननहारा।
जब लग नदी न समुद समावै तब लागि बढ़े हंकारा।
जब मन मिल्यों रामसागर सो तब यह मिटी पुकारा।
प्रभु के प्रति सच्ची समर्पण भावना
आध्यात्मिक प्रेम की अनुभूतियों को व्यक्त करने में रैदास ने दाम्पत्य रूपक का चित्रण किया है। वे साधना के बाह्य स्वरूप और जगत के बाह्य आकर्षण त्याग कर प्रभु के प्रति एक सच्ची समर्पण पूर्ण प्रेमिका बनने का भाव ग्रहण करते हैं।
रैदास अपने आध्यात्मिक प्रियतम की विरह में व्याकुल भी होते है।
वे कहते हैं पीव संग प्रेम कबहुं न पायो। इस विरह से उन्हें अपना जीवन दुष्कर लगने लगता है (पद 85) मैं बेदीन कासनि आंखू हरिबिन जीवन कैसे राखंू। उनकी दुखद दशा के कारण भूख प्यास सब छूट जाती है। विरह तपै तन अधिक जरावै नींद न आवै भोज न भावै। रैदास का एक-एक पल युग के समान व्यतीत होता है रात भर वे प्रियतम के विरह में तड़पते रहते हैं। (पद 68)
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कह रैदास स्वामी तें बिछुरे एक पलक जुग जाई।
प्रियतम से अपने आलिंगन में बांध लेने के लिए रैदास प्रार्थना करते हैं- मेटि दुहाग सुहागिन कीजै अपने अंग लगाई। वे प्रिय के मिलन में पूर्ण तादात्म्य अपनत्व के पूर्ण विसर्जन के भाव को एक पवित्रता के आदर्श को सामने रखते हैं। (पद 113)
सुख की साइ सुहागिन जानै तजि अभिमान रंगरलिया मानै।
तन मन देइ न अंतर राखै रामरसायन चाखै।
प्रियतम से मिलन के सुख की अवर्णनीयता का चित्रण रैदास विविध रूपों में करते हैं (पद 43) जो सुख है इह रस के परसे सो सुख का कहि गावेगा। संत रैदास ने अपने युग की परिस्थितियों को सामने रखते हुए नाम को एकमात्र आधार माना है।
सतयुग सत त्रेता जगी द्वापर पूजा चार।
तीनों युग तीनों दृढ़ैं कलि केवल नाम आधार।
करम अकरम बिदारिये सुनि स्मृति वेद पुरान।
संसा सदा हिरदै बसै हरि बिन कौन हरे अभियान।
बाहर उदक पखारिये घट भीतर विविध विकार।
सुचि कौन विधि होइये जैसे कुुंजर विधि त्यौहार।
सन्त रैदास जहां परंपरागत रूढ़ धर्म के परित्याग में विश्वास रखते हैं वहीं गुरू को मार्ग निदेशक मानते हैं।
ज्ञान विचार चरण चित्त राखै हरि की चरण गहै रे
पात्री तोरे पूजि रचावै तारन तरन कहै रे
जिविध संसार कौन विधितिरबो जे डिढ नाव गहैरे
नाव छांड़ि वे डंूगे पैसे दूना दुःख सहै रे
गुरू को शब्द औ सुरति कुदाली खोदत कोई लहै रे -(पद 73)
गुरू के प्रति कृतज्ञ
सन्त रैदास गुरू कृपा से समत्व बुद्घि की प्राप्ति के प्रति गुरू के प्रति कृतज्ञ हैं। गुरू परसाइ भई अनु औ मति विष अमृतसम ध्यावैंगा। (पद 94) राम के रंग में रंग जाने से नरक से अपनी मुक्ति की घोषणा करते हैं। जन रविदास राम रंग राता। गुरू प्रसाद नरक नहिं जाता। वे गुरू को ईश्वर के समकक्ष मानते हैं हरि गुरू साध समान चित चित बिन आगम तत्मूल। इन बिच अंतर जिमि परी करवत सह न कबूल। (साखी 8) जगत के सभी व्यक्तियों को छोड़कर निर्दोष गुरू को रैदास पूर्ण सत्गुरू कहते हैं। रैदास कहते हैं कि जिस परिवार में किसी भक्त या साधु का जन्म होता है वह धन्य हो जाता है।
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जिहि कुल साधु वैष्णो होय।
वरन अवरन रंकु नहिं ईसुर विमल जासु जानि अै सब कोय। (पद 36)
सत्संग की प्रशंसा में उनका कथन है।
गली गली को जल बहि आयो सुरसरि जाय समायो।
संगति के परताप महातम नाम गंगोदक पायो।
स्वाति बंूद बरसै फणि ऊपर शीश विषय हुई जाई।
वही बंूद के मोती उपजै संगति को अधिकाई॥ (पद 69)
रैदास सत्संग के बिना भक्ति की प्राप्ति असंभव मानते हैं
साधु संगति बिन भाव न उपजै। भाव बिन भक्ति नहीं होय तरी॥ (पद 32)
सत्संग से परमगति मिलती है, यह भी वे मानते हैं।
मिलत पियारो प्राननाथ कवन भगति ते साध संगति पाइयैपरम गति। (पद 24) भक्तों को सत्संग की प्रेरणा रैदास देते हैं धन्य हरि भक्ति त्रैलोक्य यश पावनी। करो सत्संग इह विमल यश गावनी। (पद 57)
उनका चिन्तन समता मूलक कहा जाता है। वे कहते हैं
कृष्ण करीम राम हरि राघव जब लगि एक न पेषा।
वेद कतेव कुरान पुरानन सहज एक करि भेषा। (पद 92)
रैदास के काव्य में कश्य तथा कथन दृष्टि से सौंदर्य पर्याप्त है-
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा।
तुम सरनागत राजाराम चन्द कहि रविदास चमारा। (पद 40)
शरणागति चेतावनी प्रायश्चित आदि भाव है। प्रभु जी संगती शरन तिहारी। जगजीवन राममुरारी। (पद 69) कहां नर सूते मुग्ध काल के मंझ मुख तज अब सत्त राम चितवन अनेक सुख। (पद 17) जनकंू तार रमइया तू न बिसारिये राम जन मैं तोरा। (पद 25)
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रूपक सौन्दर्य उनके काव्य में अनुपम है। उनकी शैली एक संत का संतोष और भक्त का धैर्य रहा है। रैदास की सर्वग्राह्य विचार धारा उनकी महानता का मूलाधार है। वे अपने युग के ही नहीं सदा के लिए महान विचारक चिन्तक और समाज सुधारक संत रूप में है। उनकी वाणी दीन-हीन की पीड़ा की विकलता से ओत-प्रोत है। उनके काव्य में सुंदर अभिव्यक्ति के अतिरिक्त अलंकार भी है। उपमा रूपक सांगरूपक विशेष रूप से रैदास की लेखनी का वैशिष्ट है, भावातिरेक की मात्रा अधिक है। प्रतीकात्मक बिम्बों की अधिकता है। रैदास को रवि दास नाम से भी जाना जाता है। मानवता की रक्षा करने के लिए रैदास जैसे सन्तों के अवतरण से त्रस्त जनमानस को एक नवीन दिशा और सात्विक आध्यात्मिक दृष्टि मिलती है। रैदास सच्चे अर्थों मेें मानवीय मूल्यों के संवाहक थे। जन जन को जोडऩे का जो मंत्र उन्होंने दिया उससे उनकी महानता और उदात्त दृष्टि का पक्ष दिखाई पड़ता है।