Sunday 9 February 2020

होगा कोई ऐसा भी कि गालिब को न जाने

महान उर्दू शायर मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) की 15 फरवरी को पुण्यतिथि है। मिर्जा गालिब को उर्दू का महान शायर कहा जाता है। कलकत्ता में अपनी जिंदगी गुजारने वाले महान शायद गालिब को उर्दू गजलों के लिये हमेंशा याद किया जाता है।
पूछते हैं वो कि गा़लिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?
होगा कोई ऐसा भी कि गालिब को न जाने
शायर तो बहुत अच्छा है, मगर बदनाम बहुत हैं।
है और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज बयां और।
इश्क मुझको नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत मेरी शोहरत ही सही,
कता कीजे न ताल्लुक हमसे
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही।

उपरोक्त रचनाओं के रचयिता उर्दू और फारसी के अप्रतिम विद्वान और प्रसिद्घ शायर मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) हैं। दिनांक 27 दिसम्बर 1797 में अकबराबाद (आगरा) में अब्दुल्लाह बेग खान के घर मिर्जा असदुल्लाह खान का जन्म हुआ। यही असदुल्लाह खान, मिर्ज़ा गालिब के नाम से प्रसिद्घ हुए।

उर्दू और फारसी के अप्रतिम विद्वान और शायर मिर्जा गालिब मुख्यतः इंसानी रिश्तों के कवि/शायर थे। मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) ने अपना जीवन ऐसे समय में गुजारा जो राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त उथल-पुथल भरा और सक्रांति का दौर कहा जा सकता है। पूरे देश पर अंग्रेजों का दवाब दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था और महान मुगल साम्राज्य सिकुड़ कर बस दिल्ली तक ही सीमित रह गया था।

समकालीन यथार्थ से जूझते हुए अपनी वास्तविक भावनाओं और संवेदनाओं पर अंकुश रखते हुये तमाम स्थितियों को अंग्रेजों के झूठे शुभ  चिंतक के रूप में एक दूसरे ही दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना सरल कार्य नहीं था। फिर भी मिर्जा गालिब ने उस सक्रांति के दौर में अपने सर पर लटकती तलवार के साये में बैठकर एक चश्मदीद गवाह की हैसियत से सारी बातें अपनी कृति दस्तंबु में लिखी। एक जगह गालिब लिखते हैं- जो हालात मैं ने बयान किए वे दिल दुखाने वाले हैं, परन्तु जो कुछ मैं कह नहीं सका हूँ वह भी आत्मा को कंपा देने वाला है।

यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि उनकी प्रायः सभी कृतियां उनके जीवनकाल में छपकर चर्चित हो चुकी थी। मान-सम्मान की दृष्टि से गालिब अपने युग के सबसे सौभाग्यशाली शायर थे। मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) अपने युग की संस्कृति के जीते जागते उदाहरण थे। यह एक ऐसी संस्कृति थी जो उच्च माननीय मूल्यों, नैतिक आदर्शों तथा साम्प्रदायिक एकता एवं सद्भाव पर आधारित थी। जीवन भर इस धरोहर को वह अपने सीने से लगाये रहे।

गालिब के समय में काव्य के विषय सीमित थे। जबकि गालिब बड़ी पृष्ठभूमि में लिखना चाहते थे। व्यापक और विस्तृत उनका परिवेश था। लेकिन बात कहने की उनकी जो वक्रता थी वह उनको सब शायरों से अलग कर देती है। उनकी रचनाओं से यह बात साफ झलकती है कि मध्ययुग से जुड़े होते हुए भी वे आधुनिकता की ओर मुडऩा चाहते थे। गालिब जिन भावों को अपने काव्यों में लाना चाहते थे वे तत्कालीन काव्य के दायरे में नहीं समा पा रहे थे। अतः वे काव्य के क्षेत्र के और विस्तार के पक्ष में थे।

मिर्जा गालिब मानवता में दृढ़ विश्वास रखते थे। उनकी यही आस्था और विश्वास उनको धर्म और जाति के सीमित बंधनों से परे, हर किसी के साथ आत्मीयता, प्रेम और सद्भावना बरतने पर मजबूर करता था।
मिर्जा गालिब की शायरी के कुछ अन्य उदाहरण भी देखिये-

मैं बुलाता तो हूं उसको, मगर ऐ जज़्ब-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने।
गालिब की शायरी की एक ओर अदा देखिये-
- शमा बुझती है तो उस में से धुआं उठता है
शोला-ए-इश्क स्याहपोश हुआ मेरे बाद।

मिर्जा गालिब की शायरी में हर रचना एक अलग अदा बयान करती ह।
देखिये एक ओर रचना-

-रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो
हम सुखन कोई न हो और हम जबाँ कोई न हो।
- आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक।

मिर्जा गालिब अपने अंतिम दिनों में तबियत ठीक न होने के कारण अधिकतर समय पलंग पर लेटे रहते थे। ऐसी स्थिति में भी गालिब पत्रों के उत्तर स्वयं पलंग पर लेटे-लेटे  लिखते थे या बोलकर लिखा दिया करते थे। उनके पटु शिष्य अल्ताफ हुसैन हाली के अनुसार मिर्जा गालिब ने लोहाऊ के तत्कालीन नवाब अलाउद्दीन अहमद खान के पत्र के उत्तर में एक वाक्य और फारसी का एक शेर लिखवाया था। यही उनका आखिरी शेर था जो इस प्रकार था-

मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो?
एक-आध दिन में पड़ोसियों से पूछना।

उर्दू और फारसी के अप्रितम विद्वान और महान शायर मिर्जा गालिब का देहान्त 73 वर्ष चार माह की आयु में 15 फरवरी 1869 में हुआ। आज मिर्जा गालिब नहीं हैं परन्तु उनकी शायरी उनके होने का अहसास कराती है और भविष्य में भी कराती रहेगी।

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