Tuesday, 28 January 2020

प्रत्याशी किस प्रकार का चुना जाये आज भी प्रासंगिक है

हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना से लेकर संविधान के सारे प्रावधानों में देश के सभी नागरिकों का हित है न कि किसी व्यक्ति, व्यक्ति समूह या किसी राजनीतिक दल का हित। इसके बाद भी आज लोग संविधान की प्रतियां लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। देश में कई राजनीतिक दल संविधान की ताकत को दरकिनार करना चाहते हैं। इसमें अपने हिसाब से बदलाव चाहते हैं। चुनाव आते ही और ज्यादा संविधान का बखान होने लगता है। चुनाव प्रणाली पर ही आरोप-प्रत्यारोप लगने लगते हैं। प्राचीन काल में भी देश में चुनाव हुआ करते थे। उस समय भी कई राज्यों के संविधान थे। ई.स. 920 मेें परन्तक राजवंश के राज्य का कई ग्रंथों में वर्णन पाया जाता है। एक हजार वर्ष पूर्व पंचायत ग्राम सभा दरबार में प्रत्याशियों की क्या योग्यता होनी चाहिए इसके बारे में इस राज्य में नियम बने हुए थे। हम परम्पराओं की जब बात करते हैं तब यही सोचते हैं कि हम पाश्चात्य देशों का अनुसरण मात्र कर रहे हैं या हमने ब्रिटिश संविधान की कार्बन कापी अपना रखी है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता कितनी विकसित थी इसका पता हमें उन राजा महाराजाओं के मार्गदर्शन से मालूम होता है। जिनके द्वारा प्रतिपादित नियमों के अनुसार ही ग्राम सभाओं में शासन चलाने हेतु पार्षद चुने जाते थे। वे ही काबिल और योग्य माने जाते थे जो चुनाव की सारी शर्तें पूरी करते थे। इससे संस्कृति, शिक्षा, संपन्नता अक्षुण्ण बनी रहती थी। उन्होंने भ्रष्टाचार अपराधीकरण, भाई भतीजावाद या वंश परंपरा और यहां तक कि नागरिकता के बारे में भी विस्तृत विचार विमर्श के बाद ही नियम बनाए थे। सामाजिक परंपराओं का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण चोल राज्य के समय प्राप्त होता है।

जिस प्रकार सम्राट अशोक ने स्तम्भ खुदवा कर उस पर बौद्घ विचार अंकित किए थे उसी प्रकार चेन्नई महानगर से 50 किलो मीटर दूर उत्तरमेरूर गांव मेें बैकुण्ठड्ढ पेरूमाल मंदिर की दीवारों पर चोल राजा ने संविधान खुदवाया था। यह लिखित प्रमाण हमें आज भी मिलता है कि किस प्रकार के प्रत्याशी को ग्राम सभाओं के लिए चुना जाए। ये नियम आज के युग में भी प्रासंगिक है। 

चोल राज में भी जनता के सामने भ्रष्टाचार ही सर्वोच्च मुद्दा था। किसी पर अपराधी होने का प्रमाण साबित हो जाता तो उसे आजन्म चुनाव के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता था। यहां तक कि ये नियम उसके पारिवारिक सदस्यों पर भी लागू हो जाते थे। चोल राज्य में यह स्पष्ट मान लिया गया था कि भ्रष्टाचारी अपने नाते रिश्तेदारों भाई भतीजों को अहमियत देकर लाभ का पद देकर स्वार्थ को बढ़ावा देंगे। वे पक्षपात अवश्य करेंगे। आज हम देखते हैं कि भारतीय राजनीति में यही हो रहा है। सारे नेताओं व राष्टीय और क्षेत्रीय दलों में यही प्रणाली प्रचलित है। अपने अपने आदमियों को चुनाव टिकट दिला रहे हैं और जिता रहे हैं। भ्रष्टाचार के बाद जिम्मेदारी पर अधिक प्रमुखता दी गई थी। हिसाब किताब यानि आंकड़ों का जाल तो किसी भी प्रकार बताया या मनवाया जा सकता है परंतु उससे समाज को क्या फायदा हुआ। जिस कार्य के लिए खर्च किया गया उसका लाभ जनता को मिला या नहीं इसकी परीक्षा की जाती थी। जनप्रतिनिधियों पर उनके द्वारा बनाई योजनाओं की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी गई थी। अपने कार्य में असफल हो जाने पर उन्हें हटाए जाने का भी प्रावधान था। आज चुने हुए पार्षद, विधायक या सांसद को पांच वर्ष तक कोई नहीं हटा सकता। सांसद या विधायक जेल में बैठे भी जीत जाते हैं। जनता के प्रति उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। छल, बल व पैसे की ताकत काम करती है। 

तीसरी बात कही गई वह यह कि सरकारी भूमि पर बलात् कब्जा करने वालों को भी चुनाव के अयोग्य माना जाता था। सरकारी खजाने से लूट और घोटाले रोजमर्रा की बात बन गई है। चोल राज्य में सरकारी संपत्ति राष्ट्रीय संपत्ति मानी जाती थी और नवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक इस प्रकार के भ्रष्टाचारी व अपराधियों को जनता का दुश्मन माना जाता था। आज चुनाव के समय अपराधियों को लडऩे देना चाहिए या नहीं इस पर चर्चा होती रहती है कि अपराधी कौन है? न्यायालय से दंडित या आरोपी। इस प्रक्रिया में वर्षों गुजर जाते हैं तब तक कोई फैसला नहीं होता और आरोपी ठाट से पद ग्रहण करता है। आज भी सरकारी संपत्ति हड़प ली जाती है पर निर्वाचन आयोग के हाथ कानून से बंधे हैं। चोल राज्य में इस प्रकार के लोगों को ष्ग्रामकंटक्यश् के नाम से पुकारा जाता था और वे समाज विरोधी तत्व घोषित कर दिए जाते थे। उन्हें सुधरने का मौका भी दिया जाता था और जो नहीं मानते थे उन्हें दण्डित किया जाता। जिन्होंने पांच महापातक्य किए उन्हें चुनाव के अयोग्य करार देकर उन्हें साहसिकास तमिल भाषा के नाम से पुकारा जाता था।

नागरिकता के बारे में भी चोल राज्य के संविधान में उल्लेख मिलता है कि चुनाव में खड़ा होने वाला उसी क्षेत्र का रहवासी हो। यह नागरिकता की ओर संकेत है। उस क्षेत्र की समस्याएं उसी को मालूम होती है परंतु आज पार्टियां मनचाही जगहों पर मनचाहे प्रत्याशी खड़े कर देती है। 

चोल राज्य में साम्प्रदायिकता को महत्व नहीं दिया जाना था। बाहरी आक्रमण होने पर निम्न वर्ग से लेकर उच्च वर्ग के ब्राह्मण राजपूत सभी एकमत होकर दुश्मन से युद्घ लड़ते थे। इसका एक उदाहरण ई. सन 1258 का मिलता है जब सभी जातियों ने मिलकर राज्य के हितार्थ दुश्मन से लोहा लिया था। जो दुश्मन के साथ मिल जाते थे उन्हें गद्दार या विश्वासघाती करार दिया जाता था। आयु के बारे में भी कम से कम 35 व अधिक से अधिक 70 वर्ष की प्रत्याशियों के लिए सीमा रखी थी और कोई भी तीन बार से अधिक यानि नौ वर्ष से ज्यादा पद पर नहीं रह सकता था। प्राचीन समय में तो 60 वर्ष के ऊपर राजा स्वयं अपने पुत्र को गद्दी सौंपकर वानप्रस्थाश्रम में चले जाया करते थे और आज मृत्युपर्यन्त लडख़ड़ाते हुए भी पद पर बने रहना चाहते हैं। आज 18 वर्ष को मत देने का अधिकार व 25 वर्ष वाले को चुनाव मेें खड़े होने की मान्यता दी गई है। केवल राज्यसभा में आयु सीमा 35 के ऊपर रखी गई है। जहां तक खड़े होने का सवाल है तीन बार नहीं 5 वर्ष के लिए दस बार भी चुनाव लड़ा जा सकता है और कई नेता आज भी मौजूद हैं जो 10-10 बार जीत चुके हैं या हार चुके हैं। उस समय नौ साल से ऊपर पद पर रहना वर्जित था। 

हमारे संविधान में राज्य का स्वरूप लोक कल्याणकारी स्वरूप पर आधारित है जो कि उदारवादी और सामाजिक दोनों ही गुणों से युक्त है। हर शासक को अपने समय का कार्यकाल सबसे अच्छा लगता है। लेकिन अच्छे शासन का स्वरूप क्या है? उसके क्या लक्षण हैं? अच्छे शासन का स्वरूप वर्तमान में शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही प्रस्तुत किया है। वह अपने सभी विभागीय व शासकीय कार्य अबाध गति से अपने लक्ष्य तक पहुंचाते हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थितियां आ जायें उनके कार्य निर्बाध गति से संपादित हो रहे हैं, यह एक अच्छी व्यवस्था के लक्षण हैं। उनका कैबिनेट का स्तर चुनिंदा है परंतु उनके कार्य को संपादित करने वाला मंत्र बहुत ही भारी है जो कि उस लक्ष्य को पूरा करने में पूरी ईमानदारी से लगे हुए हैं।

चोल राज्य में संविधान व चुनाव आचार संहिता कितनी अद्भुत, व्यावहारिक व अपूर्व थी और आज भी वह प्रासंगिक है। जहां तक पद से हटाने का प्रश्न है आज किसी भ्रष्टाचारी सरकार या मंत्री को हम हटाना चाहे तो भी नहीं हटा सकते हैं यह एक विडम्बना है। लेकिन अब समय अनुसार प्रधानमंत्री उसी प्रकार की व्यवस्था को लागू करने पर विचार कर सकते हैं। बहुत कुछ कार्य तो उन्होंने शुरू भी कर दिये हैं। 

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