Thursday 13 February 2020

मृत्यु लोक के स्वामी भगवान महाकाल

12 ज्योतिर्लिंग में से एक मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर मंदिर है। कहते हैं कि जो भी इस शिवलिंग के दर्शन करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विश्व भर के लोग यहां इसलिए दर्शन करने आते ताकि अकाल मृत्यु को टाल सकें। यहां आकर दर्शन करने से धन धान्य की वृद्धि होती है, लंबी आयु की प्राप्ति होती है और निरोगी काया बनी रहती है। इस ज्योतिर्लिंग को पृथ्वी का केंद्र भी कहा जाता है।

उज्जयिनी: 

वर्तमान में आज का उज्जैन शहर। यह अनादि, धार्मिक, ऐतिहासिक व पुण्य नगर आध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध नगरी है। समय-समय पर इसके भिन्न-भिन्न नाम रहे हैं, जैसे- कनक शृंगा, कुश स्थली, पद्ड्ढमावती, अवंतिका, कुमुदवती, प्रतिकल्पा, अमरावती, नवतरी और विशाला आदि। इस शहर की गणना भारत के प्राचीनतम प्रसिद्ध धार्मिक सात पुरियों- (अयोध्या, मथुरा, गया, काशी, कांची, अवंतिकापुरी और अमरावती) में की गई है। महर्षि भृगु, गौतम, जमदग्नि, जदरूप, भारद्वाज, कश्यप, अगस्त्य, अंगरिस, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, बाणभट्ट, भर्तृहरि, महावीर स्वामी, कालीदास जैसे ज्ञानी-ध्यानी की यह नगरी, साधना स्थली रही है। वहीं उदयन, अशोक और सम्राट विक्रमादित्य जैसे इतिहास पुरुष सम्राटों की राजधानी भी यह नगर रहा। विश्व को गीता संदेश देने वाले भगवान श्रीकृष्ण, अपने अग्रज बलराम एवं मित्र सुदामा के साथ उज्जयिनी आये थे। गुरुवर सांदीपनि के चरणों में बैठकर- ’ज्ञान-विज्ञान, विद्या और चौंसठ कलाओं की शिक्षा प्राप्त की थी। भारतीय संस्कृति की गरिमामयी ’गीता्य ग्रंथ की रचना करने की प्रेरणा श्री कृष्णजी को यहीं से प्राप्त हुई थी। श्रीराम के राज्याभिषेक पर हनुमानजी यहां आए थे और महाकाल कुंड का जल ले गये थे। इस कारण उज्जैन नगर का धार्मिक महत्व अमरलोक से भी बढ़कर है।

जगत की उत्पत्ति के बीज और समस्त पापों को हरने वाले मृत्यु लोक के स्वामी भगवान महाकाल (शिव) का विश्व प्रसिद्ध चमत्कारिक मंदिर महाकालेश्वर है यहां वे ज्योतिर्लिंग स्वरूप विराजमान है। इस नगरी को सृष्टि समारंभ की स्थली माना गया है, अर्थात मानव सृष्टि का आरंभ इस पुण्य नगरी, उज्जयिनी से हुआ है। 

आकाशे तारंक लिंग पाताले
हाटकेश्वरम्ड्ढ।
मृत्यु लोके महाकालं लिंग रूपे
नमोस्तुते॥

भगवान शिव (महाकाल) महातीर्थ उज्जैन में सकल और निष्फल निराकार रूप, शिवलिंग (ज्योतिर्लिंग) स्वरूप महाकालेश्वर मंदिर में विराजमान हैं। पुण्य मोक्ष दायिनी क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित यह ज्योतिर्लिंग भारत वर्ष के बारह ज्योतिर्लिंगों में से प्रमुख एक ज्योतिर्लिंग है। ज्योतिर्लिंग महादेव का यह विग्रह यहां स्वयं प्रकट हुआ था,  शिवपुराण की शतरुद्र संहिता में उल्लेख है-

सौराष्टड्ढ्रे सोमनाथंच श्री शैलेमल्लिकार्जुनम्
उज्जयिन्यां महाकालः ओंकारम्ड्ढ मल्लेश्वरम्।
केदारे हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्
वाराणस्यां च विश्वेशं। त्र्यम्बको गोमती तट।
वैद्यनाथ चिताभूमो नागेशं दारूकावने,
सेतु बंधे च रामेश घुष्णेशंच शिवालय।
एतानि ज्योतिर्लिंगानी प्रातः रूपटघायपश्ते।
जन्मांतर कृतं पापं स्मरणेन विनश्यति।

अर्थात्ड्ढ सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्री शैल स्थान में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, विन्ध्याचल में ओंकारेश्वर, बिहार के संथालपरगना में वैद्यनाथ, महाराष्ट्र के डाकिनी में भीमशंकर, सेतुबन्ध में रामेश्वर, दारूकावन में नागेश्वर, वाराणसी में विश्वेश्वर, महाराष्टड्ढ्र के गोमती नदी तट पर त्र्यंबकेश्वर, हिमालय में केदारेश्वर और आंध्र में घुमनेश्वर ज्योर्तिलिंग हैं।

शिव: भारतीय आदर्श एवं चिंतन के प्रतीक- 

सिर पर पतित पावन गंगा को धारण करने वाले, मस्तक पर सर्पों का मुकुट, बाघ की खाल पहने हुए स्वरूप का ध्यान आते ही महादेव, भगवान शिव का पुण्य स्मरण होता है। शिवलिंग, सृष्टि के नियंता का निराकार स्वरूप, उन्हीं महादेव (शिव) का प्रतीक है। महाकाल का ज्योतिर्लिंग   प्रकृति एवं चेतन पुरुष की चिन्ह मूर्ति है। अव्यक्त में वह चिन्ह की अभिव्यक्ति है। शिव का यह ज्योतिर्लिंग साक्षात्ड्ढ ब्रह्मड्ढ का प्रतीक है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव, अनुग्रह ये पांच कार्य भगवान शिव के जगत संबंधी हैं। संसार की रचना का जो आरंभ है उसी को सर्ग या सृष्टि कहते हैं शिव से पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही ’संहार्य है। प्राणों, के उत्सर्ग ’तिरोभाव्य कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही शिव का अनुग्रह है। इस प्रकार शिव के ये पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि ये चार कृत्य संसार का विस्तार करने वाले हैं तथा पांचवां कृत्य शिव का मोक्ष का है जो उनमें सदा अचल भाव से स्थिर रहता है। भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पांच भूतों में देखते हैं- सृष्टि भूतल में, पालन जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है, आग सबको जला देती है, वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है और आकाश सबको अनुग्रहित करता है।

शिव आदि देव हैं। हमारी सांस्कृतिक मान्यता के अनुसार 33 करोड़ देवताओं में शिरोमणि देवता शिव ही हैं। उनकी शक्ति को समस्त देवता स्वीकार करते हैं। सृष्टि के तीनों लोगों में शिव एक अलग अलौकिक शक्ति वाले देवता हैं। ज्योतिर्लिंग- महाकाल निराकार ब्रह्मड्ढ के प्रतीक स्वरूप हैं। उत्तम सुख प्रदाता हैं। सत्यम्ड्ढ, शिवम्ड्ढ और सुन्दरम्ड्ढ का स्वरूप है। महाकाल की सत्ता और शक्ति चमत्कार को दुनिया भर के धर्म और धर्मावलम्बी स्वीकार करते हैं। महाकालेश्वर भगवान का यह विशाल भव्य मंदिर लगभग तीन किलोमीटर परिधि में फैला हुआ है तथा सौ फुट से भी ऊंचा काले पत्थर से बना हुआ है। भगवान महाकाल की मूर्ति चार फीट ऊंचा व उतनी ही का शिवलिंग काले चिकने पत्थर का बना हुआ है जिस पर चांदी से बना एक सर्प लिपटा रहता है। मूर्ति के उत्तर दिशा की ओर ब्रह्मड्ढाजी की मूर्ति, दक्षिण में गणेश जी तथा पश्चिम में देवीमाता की सफेद पत्थर संगमरमर की मूर्ति विराजित है और ऊपर की ओर चांदी का बना हुआ महारुद्र यंत्र लगा हुआ है। उस महारुद्र यंत्र के आसपास भगवान शिव के नामों का उल्लेख है। मंदिर परिसर में नवग्रह तथा बाल हनुमान मंदिर और अवंतिका की प्रमुख देवी अवंतिका माता का मंदिर भी है।

त्रिकाल पूजा होती है भगवान शिव की: ज्योतिर्लिंग महाकाल की मंदिर के पुजारियों पंडितों द्वारा त्रिकाल पूजा होती है। पहली पूजा प्रातः 4 बजे से 6 बजे तक जिसे भस्मार्ति पूजा कहा जाता है। इस पूजा में ज्योतिर्लिंग पर चिता की भस्म का लेपन अर्पण किया जाता है। यह चिताभस्म अनादिकाल से अब तक प्रज्जवलित एक अखंड धूनी से हर रोज प्राप्त की जाती है। तत्पश्चात आरती के समय महाकाल के ज्योतिर्लिंग को स्नान करवाकर महाकालेश्वर भगवान का शृंगार किया जाता है। भस्म आरती की यह पूजा दर्शनीय होती है। ऊँ नमः शिवाय या महाकाल का नाम लेने और दर्शन मात्र से हर इच्छा और मनोकामना पूरी होती है। उस भक्त के लिए भगवान महाकाल के सामने काल भी काल का ग्रास बन जाता है। कहा गया है-

महाकाल नमस्कृत्य न रोग मृत्युं न शोचयतें।
काल संहारकर्ता त्वं महाकाल स्ततो हासि॥

कहते हैं श्रीकृष्ण जब अपने गुरु सांदीपनि से शिक्षा प्राप्त करके अध्ययनोपरांत उनके स्वगृह जा रहे थे तब उन्होंने भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करके सह कमल पुष्प अर्पित किये थे। 
इनमें एक कमल कम हो जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने गुरु सांदीपनि के साथ अपना नेत्र कमल चढ़ाया और भगवान महाकाल स्वयं प्रकट हुए और कृष्ण का नेत्र कमल लौटा दिया था। 

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